चेहरा-पुस्तक पर
हम दिन भर
ड्यूटी करते हैं।।
मोबाइल को लिए
हाथ में
आँखें मींच रहे।
नोटिफिकेशन
की फुलवारी
को फिर सींच रहे।
चित्र देख
राधारानी का
कान्हा मरते हैं।।
शिल्प, भाव औ' बिम्ब
गीत का कहीं
खो गया है।
दिन भर ही
कुछ लिखते रहना
कर्म हो गया है।
आलोचक की
पड़ें न नज़रें
इससे डरते हैं।।
बार-बार
यह देखा करते
कितने मिले कमेंट।
और किए
कितने हैं हमने
क्या निकला परसेंट।
जो मेरी कविता
न पढ़े हम
उससे जरते हैं।।
जैसे ही
यामिनी निकाले
चादर बाहर पैर।
कह देते शुभ रात्रि
सभी से
या फिर शब्बा ख़ैर।
दिनचर्या
बाधित न हो सके
चार्जिंग करते हैं।।