ग़ज़ल
ये दुनिया दर्द की मारी बहुत है
यहाँ रहने में दुश्वारी बहुत है
कोई आगाज़ है करता नहीं पर
सफ़र करने की तैयारी बहुत है
कभी नादाँ हुआ करते थे बच्चे
मगर अब इनमें हुशियारी बहुत है
मुख़ालिफ ही चली मेरे हमेशा
हवाओं में ये बीमारी बहुत है
उठा पाये न इसको 'मीर' तक भी
ये पत्थर इश्क़ का भारी बहुत है
मेरे हालात चाहे जो हो लेकिन
'अमन' फ़ितरत में ख़ुद्दारी बहुत है
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!👌👌💐💐
ReplyDelete~ कैलाश झा किंकर